Wednesday, June 3, 2020

Ancient University of India 3 - VIKRAMSHILA

            
  Writer: Pro.Dr. V.K.TRIVEDI

आप सबका बहोत बहोत धन्यावाद की आपने मेरे ब्लोग को सराहा l 🙏

आप के ईमेल और मेसेज मिलते रहते हैं, आपके सुझाव के अनुसार अब से मेरे ब्लॉग हिन्दी में भी उपलब्ध होंगे l
ये मेरे लिए गर्व बात होगी कि मेरे संशोधन एवँ विचार, मे राष्ट्रभाषा मे प्रस्तुत करने के लिए बहोत खुश हुँ l

तो हमारी सीरीज आगे बढ़ाते हुए आज हम तीसरी अद्भुत विक्रमशिला विश्वविद्यालय के बारे में जानकारी प्रस्तुत करेंगे l


विक्रमशिला भारत का एक प्रसिद्ध शिक्षा-केन्द्र (विश्वविद्यालय) था। नालन्दा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला दोनों पाल राजवंश के राज्यकाल में शिक्षा के लिए जगत्प्रसिद्ध थे। वर्तमान समय में बिहार के भागलपुर जिले का अन्तिचक गाँव वहीं है जहाँ विक्रमशिला थी। इसकी स्थापना ८वीं शताब्दी में पाल राजा धर्मपाल ने की थी। प्रसिद्ध पण्डित अतीश दीपंकर यहीं शिक्षण करते थे।



यहाँ पर लगभग 160 विहार थे, जिनमें अनेक विशाल प्रकोष्ठ बने हुए थे। विद्यालय में सौ शिक्षकों की व्यवस्था थी। नालन्दा की भाँति विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय भी बौद्ध संसार में सर्वत्र सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। इस महाविद्यालय के अनेक सुप्रसिद्ध विद्वानों में 'दीपांकर श्रीज्ञान अतीश' प्रमुख थे। ये ओदन्तपुरी के विद्यालय के छात्र थे और विक्रमशिला के आचार्य। 11वीं शती में तिब्बत के राजा के निमंत्रण पर ये वहाँ पर गए थे। तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में इनका योगदान बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता है।

मान्यता है कि बख्तियार खिलजी नामक मुस्लिम आक्रमणकारी ने सन ११९३ के आसपास इसे नष्ट कर दिया था।


इस विश्वविद्यालय ने अपनी स्थापना के तुरन्त बाद ही अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व प्राप्त कर लिया था। विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रख्यात विद्वानों की एक लम्बी सूची है। तिब्बत के साथ इस शिक्षा केन्द्र का प्रारम्भ से ही विशेष सम्बंध रहा है। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में विद्याध्ययन के लिए आने वाले तिब्बत के विद्वानों के लिए अलग से एक अतिथिशाला थी। विक्रमशिला से अनेक विद्वान तिब्बत गए थे तथा वहाँ उन्होंने कई ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया। इन विद्वानों में सबसे अधिक प्रसिद्ध दीपंकर श्रीज्ञान थे जो उपाध्याय अतीश के नाम से विख्यात हैं। विक्रमशिला का पुस्तकालय बहुत समृद्ध था। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में बारहवीं शताब्दी में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की संख्या ३००० थी। विश्वविद्यालय के कुलपति ६ भिक्षुओं के एक मण्डल की सहायता से प्रबंध तथा व्यवस्था करते थे। कुलपति के अधीन ४ विद्वान द्वार-पण्डितों की एक परिषद प्रवेश लेने हेतु आये विद्यार्थियों की परीक्षा लेती थी।


इस विश्वविद्यालय में व्याकरण, न्याय, दर्शन और तंत्र के अध्ययन की विशेष व्यवस्था थी। इस विश्वविद्यालय की व्यवस्था अत्यधिक सुसंगठित थी। बंगाल के शासक शिक्षा की समाप्ति पर विद्यार्थियों को उपाधि देते थे। सन १२०३ ई० में बख्तियार खिलजी ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया।
यहाँ बौद्ध धर्म और दर्शन के अतिरिक्त न्याय, तत्त्वज्ञान, व्याकरण आदि की भी शिक्षा दी जाती थी। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती थीं तथा उनकी जिज्ञासाओं का समाधान विद्वान आचार्यों द्वारा किया जाता था। यहाँ देश से ही नहीं विदेशों से भी विद्याध्ययन के लिए छात्र आते थे। शिक्षा समाप्ति के बाद विद्यार्थी को उपाधि प्राप्त होती थी जो उसके विषय की दक्षता का प्रमाण मानी जाती थी। पूर्व मध्ययुग में विक्रमशिला विश्वविद्यालय के अतिरिक्त कोई शिक्षा केन्द्र इतना महत्त्वपूर्ण नहीं था कि सुदूर प्रान्तों के विद्यार्थी जहाँ विद्या अध्ययन के लिए जाएँ। इसीलिए यहाँ छात्रों की संख्या बहुत अधिक थी। यहाँ के अध्यापकों की संख्या ही ३००० के लगभग थी अतः विद्यार्थियों का उनसे तीन गुना होना तो सर्वथा स्वाभाविक ही था। इस विश्वविद्यालय के अनेकानेक विद्वानों ने विभिन्न ग्रंथों की रचना की, जिनका बौद्ध साहित्य और इतिहास में नाम है। इन विद्वानों में कुछ प्रसिद्ध नाम हैं- रक्षित, विरोचन, ज्ञानपाद, बुद्ध, जेतारि रत्नाकर शान्ति, ज्ञानश्री मिश्र, रत्नवज्र और अभयंकर। दीपंकर नामक विद्वान ने लगभग २०० ग्रंथों की रचना की थी। वह इस शिक्षाकेन्द्र के महान प्रतिभाशाली विद्वानों में से एक थे। अब इस विश्वविद्यालय के केवल खण्डहर ही अवशेष हैं।


बख्तियार खिलजी


प्राचीन विक्रमशिला विश्वविद्यालय का उद्देश्य नालंदा और तक्षशिला में मौजूदा विश्व स्तर के विश्वविद्यालयों के पूरक थे।  यह दिल्ली सल्तनत के बख्तियार खिलजी के एक हमले के दौरान नष्ट होने से पहले चार शताब्दियों तक चला।

मुझे पहले एक कहानी के साथ शुरू करना चाहिए, जो मुझे यकीन है कि आप में से अधिकांश ने नहीं सुना है।  यह कहानी "नालंदा / विक्रमशिला विश्वविद्यालय को नष्ट करने वाले व्यक्ति" (1193 CE) के बारे में है।

यह उन्मादी इस्लामिक तुर्क मुहम्मद गोरी की सेना का सरदार था, जिसने 12 वीं शताब्दी के अंत में भारत पर आक्रमण किया, पृथ्वीराज चौहान को धोखा दिया और अंत में मगध (आज के बिहार) की ओर कूच किया और उस समय की दुनिया में सबसे सुंदर इमारत / परिसर को जला दिया।  प्राचीन बौद्ध नालंदा विश्वविद्यालय।

भारत के बौद्ध धर्म के 1500 साल पुराने इतिहास में "विशाल" ऐतिहासिक घटना के रूप में कुछ छोटे से परिसर में स्थित कुछ विश्वविद्यालय को जलाने का यह "छोटा" कदम है।  500 ईसा पूर्व से भारत में बौद्ध धर्म का जन्म और विकास हुआ और 1193 ई। तक जीवित रहा।

    नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 450 ईस्वी में शानदार प्राचीन गुप्त साम्राज्य के कुमारगुप्त ने की थी।  गुप्त, हर्षवर्धन, पलास और सेना के संरक्षण में इसका संरक्षण 800 से अधिक वर्षों तक नहीं रहा, जब तक कि इस व्यक्ति ने मगध की पवित्र भूमि पर अपना कदम नहीं रखा।

  जब वह विश्वविद्यालय के गेट पर सुरक्षा गार्ड की हत्या करने के बाद नालंदा परिसर में दाखिल हुए, तो उन्होंने कई देशों के हजारों छात्रों को देखा।  उनमें से कुछ पेड़ के नीचे परिसर के मैदान में ध्यान कर रहे थे।  बिना किसी देरी के, उसने अपनी तलवार अपने हाथ में ले ली और निर्दयता से उस परिसर में मौजूद हर एक गैर-मुस्लिम को मारना शुरू कर दिया, जिसमें नालंदा का सबसे पुराना भिक्षु भी शामिल था, जो 40 से अधिक वर्षों से प्राचीन विश्वविद्यालय का रखरखाव कर रहा था।

सामूहिक वध के बाद, उन्होंने विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को प्रज्वलित किया जो सभी प्रकार के ज्ञान के विशाल स्रोत से समृद्ध था जो उस समय धरती पर उपलब्ध हो सकता था, जिसमें 30 मिलियन से कम शास्त्र नहीं थे।  इतिहासकारों का दावा है कि उस पुस्तकालय को पूरी तरह से जलने में 3 और डेढ़ महीने लग गए।

यह शख्स कोई और नहीं “बख्तियार खिलजी” था !!

विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ न्याय, तत्वज्ञान एवं व्याकरण की शिक्षा दी जाती थी। 12वीं शती में यह विश्वविद्यालय एक विराट् शिक्षा–संस्था के रूप में प्रसिद्ध था। इस समय में यहाँ पर तीन सहस्र विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए समुचित व्यवस्था थी। संस्था का एक प्रधान अध्यक्ष तथा छः विद्वानों की एक समीति मिलकर विद्यालय की परीक्षा, शिक्षा, अनुशासन आदि का प्रबन्ध करती थी। 1203 ई. में मुसलमानों ने जब बिहार पर आक्रमण किया, तब नालन्दा की भाँति विक्रमशिला को भी उन्होंने पूर्णरूपेण नष्ट–भ्रष्ट कर दिया। बख़्तियार ख़िलजी ने 1202-1203 ई. में विक्रमशिला महाविहार को नष्ट कर दिया था। यहाँ के विशाल पुस्तकालय को आग के हवाले कर दिया था, उस समय यहाँ पर 160 विहार थे जहां विद्यार्थी अध्ययनरतथे। इस प्रकार यह महान विश्वविद्यालय, जो उस समय एशिया भर में विख्यात था, खण्डहरों के रूप में परिणत हो गया।

तिब्बती सूत्रों के अनुसार, पाँच महान महावीर बाहर खड़े थे: विक्रमशिला, जो कि उस समय की प्रमुख विश्वविद्यालय थी;  नालंदा, अपने प्रमुख लेकिन अभी भी शानदार, सोमपुरा, ओदंतपुरा, और जगदला के सामने है।

नालंदा और विक्रमशिला, दो अन्य महान विश्वविद्यालय जो पाल वंश के दौरान बड़े हुए थे, उन्हें महा विहार कहा जाता था, 'महान मठ'।  विक्रमशिला युग का प्रमुख विश्वविद्यालय था और नालंदा के साथ भारत में बौद्ध शिक्षा के दो सबसे महत्वपूर्ण केंद्रों में से एक था।

पाल वंश का दूसरा शासक धर्मपाल एक पवित्र बौद्ध राजा था और विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए जाना जाता है।  विक्रमशिला विश्वविद्यालय बिहार के भागलपुर के पास कहलगाँव में स्थित है।

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